प्रकृति के साथ अपनों की बात सुनने की कला सीखें
क्या प्रकृति बोलती है? और यदि बोलती है तो क्या उसे सुना जा सकता है? अब इसमें आधी बात तो तय है कि प्रकृति बोलती है। लेकिन सुना जा सकता है, ये साबित करने के लिए हमें एक प्रसंग से गुजरना चाहिए। श्रीराम और लक्ष्मण को लेकर गुरु विश्वामित्र अयोध्या से अपने आश्रम की ओर जा रहे थे। राम-लक्ष्मण के लिए पहला अवसर था कि महल से निकलकर इस तरह की पदयात्रा करें। उसी समय राम को एक झरने की आवाज सुनाई दी। उन्होंने विश्वामित्र से पूछा, झरना दिख नहीं रहा, पर आवाज तो आ रही है। तब विश्वामित्र ने कहा, यह ब्रह्मा के मानसरोवर से निकली नदी सरयू के झरने की आवाज है। राम अच्छा हुआ कि तुमने इसे सुन लिया, तुम्हें राजा बनना है। विश्वामित्र ने कहा था, एक राजा को अनकही सुनने की आदत होनी चाहिए। राजा प्रकृति की भाषा को पढ़ ले। प्रकृति, प्रजा और परिवार, इन तीनों में बहुत कुछ ऐसा बोला जाता है, जो सीधे सीधे दिखता नहीं और रास्ते चलते सुनाई नहीं देता। इसको सुनने के लिए बहुत गहरे उतर कर दिल से सुनना पढ़ता है। हम भी प्रयास करें। हमारे जीवन में प्रकृति, हमारा परिवार और प्रजा यानी जो लोग हमसे जुड़े हुए हैं, वो कुछ न कुछ बोल रहे हैं। शायद ठीक से कह नहीं पाते, पर हमें सुनने की कला आना चाहिए।
पं. विजयशंकर मेहता
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