गर्मियां शुरू हो चुकी हैं। विडंबना है कि छांव के लिए पेड़ नजर नहीं आते, रेहड़ी वाला भी फ्लाईओवर के नीचे छांव ढूंढता है। ऐसे हालात में भी अगर हम जल-जंगल की बात नहीं करें तों विनाश से कोई नहीं बचा सकता। हाल ही में (21 मार्च) अंतरराष्ट्रीय वन दिवस मनाया गया। लेकिन इस पर व्यापक चर्चा नहीं हुई।
देश में करीब 24.62% वनक्षेत्र का दावा किया जाता है, यह आंकड़ा छद्म ज्यादा लगता है। क्योंकि सच्चाई यह है कि यह किसी भी हालत में 14-15% से ज्यादा नहीं है। सरकारी आंकड़े में सभी तरह के पेड़ों को जोड़कर वन का दर्जा दे दिया जाता है। फॉरेस्ट पॉलिसी कहती है कि देश में करीब 33% भूमि पर वन होने चाहिए। राज्यों की भी इसमें हिस्सेदारी समान रूप से होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है। इसका सबसे बड़ा मखौल हरियाणा ने उड़ाया है, जहां मात्र 3.5% वन ही बचे हैं। हरियाणा में भूमिगत जल की स्थिति भी बदतर है। लेकिन यहां सरकार की चिताओं में वनों के लिए स्थान नहीं है क्योंकि शायद उनकी समझ से परे है कि वन भी भूमिगत जल को संचित कर सकते हैं। अकेले अमेजॉन में दुनिया भर के 31% वन हैं। इसके अलावा कई देश ऐसे हैं जिन्होंने अपने वनों को सुरक्षित रखा है। इसमें रूस का नंबर सबसे आगे आता है, जिसके पास 815 मिलियन हेक्टेयर वन है। उसके बाद ब्राजील, कनाडा, चीन और ऑस्ट्रेलिया हैं, जहां करीब 100 मिलियन हेक्टेयर वन हैं।
एक सवाल यह भी उभरता है कि क्या हमारे 'सरकारी वन'- वाकई प्राकृतिक बचे हुए हैं? सही मायनों में प्राकृतिक वन वहीं है, जहां के वृक्ष प्रकृति-भूगोल के हिसाब से हों। देखने में आया है कि हम किसी भी तरह के पेड़ों वाले इलाके को वन का दर्जा दे देते हैं। यही सबसे बड़ी चिंता है।
प्रकृति ने स्थान विशेष में खास प्रजातियों को पनपने का मौका दिया है। उदाहरण के लिए केरल में अगर कटहल के पेड़ प्रचुर मात्रा में हैं तो गंगा बेसिन में साल के वृक्ष होते हैं। ओक के वृक्ष हिमालय में ही पाए जाते हैं जबकि अन्य प्रजातियां बेल-कीकर मैदानी क्षेत्रों में पाए जाते है। क्योंकि इन वनों की संरचना में प्रकृति ने बहुत बड़ा योगदान किया है और यह प्रकृति की मेहनत ही है कि उसने एक स्थान विशेष को खास वनों से आच्छादित किया। लेकिन हमने लगातार कुछ समय से इस रिश्ते को भी ध्वस्त कर दिया। आज हम किसी भी तरह के वृक्षों को लगाकर वनों का दर्जा दे देते हैं। इन छद्म वनों का मिट्टी से भी कोई खासा रिश्ता नहीं होता। इसलिए आज एक बहुत बड़ी जरूरत यह भी है कि हम क्लाइमेट फॉरेस्ट्री, जलवायु वानिकी को जन्म दें और उस पर बहस करें। जिसका सीधा मतलब है कि स्थान विशेष की जलवायु से जो मिलता है, वही वहां का वृक्ष और वन कहलाएगा। यह आज अपने देश और दुनिया के लिए सबसे बड़ी चुनौती भी मानी जा सकती है।
एक आंकड़े के अनुसार 50 साल में एक पेड़ 11 लाख रुपए के करीब ऑक्सीजन पैदा करता और करीब 63 लाख रुपए के वायु प्रदूषण को नियंत्रित करता है। एक व्यक्ति प्रतिवर्ष 7.01 टन कार्बन डाइऑक्साइड निकालता है और उसी की तुलना में एक वृक्ष करीब सात ही टन ऑक्सीजन भी देता है। यह तभी संभव है जब वह वृक्ष स्थानीय हो, क्योंकि अगर आप ऐसे वृक्ष को किसी और जलवायु क्षेत्र में लगाएंगे तो उसकी क्षमताएं अलग होंगी। इसलिए वृक्ष और स्थान विशेष का एक रिश्ता है जो वहां की मिट्टी, पानी व अन्य जलवायु से मिलते हैं। हर एक व्यक्ति दिन भर में करीब 21,600 बार सांस लेता-छोड़ता है और प्रति मिनट में उसे 8 लीटर हवा चाहिए, जिसमें 20% ऑक्सीजन होती है। यह आंकड़ा यह जताने की कोशिश कर रहा है कि वृक्ष और जीवन में क्या रिश्ता है। देश की आबादी के - अनुसार आने वाले समय में क्या हमारे पास - पर्याप्त वृक्ष होंगे ताकि बेहतर सांस ले सकें? सोचिए। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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