महाकुंभ का इतिहास

महाकुंभ का इतिहास

महाकुंभ: एक पवित्र और ऐतिहासिक पर्व






महाकुंभ एक पवित्र और ऐतिहासिक पर्व है, जो हर 12 वर्षों में आयोजित किया जाता है। यह पर्व हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, और इसमें लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं।

महाकुंभ हर 12 वर्षों में आता है। यह पर्व हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, और इसमें लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं।


महाकुंभ के आयोजन के लिए एक विशेष गणना की जाती है, जिसमें ग्रहों और नक्षत्रों की स्थिति को ध्यान में रखा जाता है। इस गणना के अनुसार, महाकुंभ हर 12 वर्षों में आता है, जब बृहस्पति और सूर्य की स्थिति एक विशेष नक्षत्र में होती है।


महाकुंभ के आयोजन के लिए चार शहरों का चयन किया जाता है:


- हरिद्वार (उत्तराखंड)

- इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश)

- उज्जैन (मध्य प्रदेश)

- नाशिक (महाराष्ट्र)


इन शहरों में से एक में महाकुंभ का आयोजन किया जाता है, जो हर 12 वर्षों में बदलता रहता है।


महाकुंभ का इतिहास


महाकुंभ का इतिहास लगभग 2000 वर्ष पुराना है। यह पर्व पहली बार प्राचीन भारत में आयोजित किया गया था, जब ऋषि और मुनि गंगा नदी के किनारे एकत्रित हुए थे और उन्होंने इस पर्व को मनाने का निर्णय लिया था।


महाकुंभ का महत्व


महाकुंभ का महत्व हिंदू धर्म में बहुत अधिक है। यह पर्व पवित्र गंगा नदी में स्नान करने के लिए आयोजित किया जाता है, जो हिंदू धर्म में बहुत पवित्र मानी जाती है। इस पर्व में श्रद्धालु गंगा नदी में स्नान करते हैं, पूजा-पाठ करते हैं, और दान-पुण्य करते हैं।


महाकुंभ के दौरान आयोजित कार्यक्रम


महाकुंभ के दौरान कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख कार्यक्रम हैं:


- गंगा नदी में स्नान

- पूजा-पाठ और हवन

- दान-पुण्य और भंडारा

- सांस्कृतिक कार्यक्रम और संगीत समारोह


महाकुंभ का महत्व और प्रभाव


महाकुंभ का महत्व और प्रभाव हिंदू धर्म में बहुत अधिक है। यह पर्व श्रद्धालुओं को पवित्र गंगा नदी में स्नान करने का अवसर प्रदान करता है, जो उनके पापों को धोने और मोक्ष प्राप्त करने में मदद करता है। इसके अलावा, यह पर्व श्रद्धालुओं को एकत्रित होने और अपने धर्म के प्रति समर्पित होने का अवसर प्रदान करता है।

महाकुंभ एक पवित्र और ऐतिहासिक पर्व है, जो हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसका महत्व और प्रभाव निम्नलिखित हैं:


महत्व:


1. *पवित्र स्नान*: महाकुंभ में गंगा नदी में स्नान करना बहुत पवित्र माना जाता है। यह स्नान पापों को धोने और मोक्ष प्राप्त करने में मदद करता है।

2. *धार्मिक एकता*: महाकुंभ हिंदू धर्म के अनुयायियों को एकत्रित होने और अपने धर्म के प्रति समर्पित होने का अवसर प्रदान करता है।

3. *सांस्कृतिक महत्व*: महाकुंभ भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो हमारी धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को प्रदर्शित करता है।

4. *आध्यात्मिक विकास*: महाकुंभ में श्रद्धालुओं को आध्यात्मिक विकास के अवसर प्रदान किए जाते हैं, जैसे कि ध्यान, योग और पूजा-पाठ।


प्रभाव:


1. *धार्मिक जागरण*: महाकुंभ हिंदू धर्म के अनुयायियों में धार्मिक जागरण को बढ़ावा देता है।

2. *सामाजिक एकता*: महाकुंभ सामाजिक एकता को बढ़ावा देता है, क्योंकि इसमें विभिन्न जातियों, धर्मों और वर्गों के लोग एकत्रित होते हैं।

3. *आर्थिक विकास*: महाकुंभ स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देता है, क्योंकि इसमें लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं और स्थानीय व्यवसायों को बढ़ावा देते हैं।

4. *सांस्कृतिक विरासत*: महाकुंभ भारतीय संस्कृति की विरासत को संरक्षित और बढ़ावा देता है, जो हमारी धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।


निष्कर्ष


महाकुंभ एक पवित्र और ऐतिहासिक पर्व है, जो हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यह पर्व श्रद्धालुओं को पवित्र गंगा नदी में स्नान करने का अवसर प्रदान करता है, जो उनके पापों को धोने और मोक्ष प्राप्त करने में मदद करता है। इसके अलावा, यह पर्व श्रद्धालुओं को एकत्रित होने और अपने धर्म के प्रति समर्पित होने का अवसर प्रदान करता है। महाकुंभ एक पवित्र और ऐतिहासिक पर्व है, जो हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यह पर्व हर 12 वर्षों में आयोजित किया जाता है, जब बृहस्पति और सूर्य की स्थिति एक विशेष नक्षत्र में होती है।


महाकुंभ का महत्व और प्रभाव निम्नलिखित हैं:


- यह पर्व पवित्र गंगा नदी में स्नान करने का अवसर प्रदान करता है, जो पापों को धोने और मोक्ष प्राप्त करने में मदद करता है।

- यह पर्व धार्मिक एकता को बढ़ावा देता है, क्योंकि इसमें विभिन्न जातियों, धर्मों और वर्गों के लोग एकत्रित होते हैं।

- यह पर्व सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित और बढ़ावा देता है, जो हमारी धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

- यह पर्व आर्थिक विकास को बढ़ावा देता है, क्योंकि इसमें लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं और स्थानीय व्यवसायों को बढ़ावा देते हैं।


महाकुंभ का निष्कर्ष यह है कि यह पर्व हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, और इसका महत्व और प्रभाव न केवल धार्मिक बल्कि सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक भी है।


महाकुंभ पर आधारित कथा


प्राचीन काल में, जब देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया, तो उससे निकले अमृत की कुछ बूंदें पृथ्वी पर गिर गईं। इन बूंदों को इकट्ठा करने के लिए, देवताओं ने एक कलश में रखा और उसे स्वर्ग में ले गए।


लेकिन, एक दिन, जब देवता और असुर लड़ रहे थे, तो कलश की एक बूंद पृथ्वी पर गिर गई। यह बूंद गंगा नदी में गिरी, जो उस समय पृथ्वी पर नहीं थी।


गंगा नदी को पृथ्वी पर लाने के लिए, भगवान शिव ने अपनी जटाओं में गंगा को धारण किया। जब गंगा नदी पृथ्वी पर आई, तो उसने अमृत की बूंदों को अपने जल में मिला लिया।


महाकुंभ का आयोजन इसी घटना की याद में किया जाता है। हर 12 वर्षों में, जब बृहस्पति और सूर्य की स्थिति एक विशेष नक्षत्र में होती है, तो महाकुंभ का आयोजन किया जाता है।


इस दौरान, लाखों श्रद्धालु गंगा नदी में स्नान करने के लिए आते हैं, जो अमृत की बूंदों से भरी हुई है। यह स्नान पापों को धोने और मोक्ष प्राप्त करने में मदद करता है।


महाकुंभ की कथा हमें यह सिखाती है कि गंगा नदी का जल पवित्र और अमृतमय है, और इसके जल में स्नान करने से हमारे पाप धुल जाते हैं और हमें मोक्ष प्राप्त होता है।

महाकुम्भ मेले का इतिहास बहुत प्राचीन और समृद्ध है। यह हिंदू धर्म का सबसे बड़ा धार्मिक समारोह माना जाता है, जो प्रयागराज (पूर्व में इलाहाबाद के नाम से जाना जाता था), हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित किया जाता है। 

समुद्र मंथन की कथा हिंदू धर्म के पुराणों में वर्णित एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा है, जिसे महाभारत और भागवत पुराण में विस्तार से बताया गया है। यह कहानी इस प्रकार है:


कथा का सार:


अमृत प्राप्ति की इच्छा: देवताओं और असुरों (दानवों) ने अमरत्व प्राप्त करने के लिए अमृत (अमरता का रस) की खोज शुरू की। उन्हें बताया गया कि समुद्र मंथन से अमृत प्राप्त हो सकता है।

मंथन का प्रारंभ: मंदराचल पर्वत को मथनी (चर्खी) के रूप में और वासुकी नाग को रस्सी के रूप में इस्तेमाल किया गया। देवताओं ने नाग की पूँछ को पकड़ा और असुरों ने मुँह को। 

विष्णु की भूमिका: भगवान विष्णु ने कूर्म (कछुआ) अवतार लेकर मंदराचल पर्वत को समर्थन दिया ताकि वह धँस न जाए।

रत्नों का उदय: मंथन के दौरान कई अद्भुत वस्तुएं और देवता प्रकट हुए, जैसे कि कामधेनु गाय, कालकूट विष, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, पारिजात वृक्ष, लक्ष्मी, वारुणी (शराब), चंद्रमा, और अंत में धन्वंतरि भगवान जिन्होंने अमृत का कलश लाया था।

विष का पान: कालकूट विष को शिव ने पीकर संसार को बचाया, जिससे उनका गला नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाए।

अमृत वितरण: अमृत को पाने के लिए देवताओं और असुरों के बीच संघर्ष हुआ। विष्णु ने मोहिनी रूप धारण करके असुरों को छला और अमृत केवल देवताओं को ही दिया गया।

परिणाम: इस घटना से देवताओं को अमरत्व मिला और उन्होंने असुरों पर विजय प्राप्त की।


यह कथा हिंदू धर्म में धैर्य, सहयोग, और अच्छाई की जीत का एक प्रतीक है। यह कथा आज भी भारतीय संस्कृति में विभिन्न उत्सवों और कहानियों के माध्यम से जीवित है।


 महाकुम्भ का संक्षिप्त इतिहास:


पौराणिक महत्व: महाकुम्भ का संबंध हिंदू पौराणिक कथा "समुद्र मंथन" से है। इस कथा के अनुसार, देवताओं और राक्षसों ने अमृत (अमरता का पदार्थ) प्राप्त करने के लिए क्षीरसागर का मंथन किया। अमृत की कुछ बूँदें पृथ्वी पर चार स्थानों पर गिरी थीं, जिन्हें पवित्र माना जाता है: प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन।

ऐतिहासिक उल्लेख: 

प्रयागराज: यहाँ का कुम्भ मेला हर 12 साल में आयोजित होता है, और हर 144 साल में "महाकुम्भ" के रूप में जाना जाता है। प्रयागराज का कुम्भ मेला सबसे बड़ा होता है, जहाँ गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती नदियों का संगम होता है।

हरिद्वार: यहाँ का कुम्भ मेला भी 12 वर्षों में एक बार आयोजित होता है, गंगा नदी के किनारे।

नासिक: गोदावरी नदी के किनारे, नासिक में कुम्भ मेला आयोजित होता है, जिसकी आवृत्ति भी 12 वर्ष है।

उज्जैन: यहाँ का कुम्भ मेला, जिसे "सिंहस्थ" भी कहा जाता है, क्षिप्रा नदी के तट पर आयोजित होता है।

ऐतिहासिक सन्दर्भ: 

महाकुम्भ का उल्लेख प्राचीन हिंदू ग्रंथों में मिलता है, जैसे कि महाभारत।

ऐतिहासिक रूप से, मुगल और ब्रिटिश शासन के दौरान भी इसका आयोजन जारी रहा, यद्यपि विभिन्न सत्ताओं ने इस पर अपने प्रभावों को डाला।

आधुनिक समय में, कुम्भ मेले का प्रबंधन और संगठन एक बड़ी चुनौती है, जिसके लिए विशाल पैमाने पर सरकारी मशीनरी और संसाधनों का उपयोग होता है।

समकालीन महत्व: आज, महाकुम्भ मेला न केवल धार्मिक अनुष्ठानों का केंद्र है, बल्कि यह सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक महत्व भी रखता है। यह विशाल मानवीय सभा विश्व के सबसे बड़े शांतिपूर्ण सम्मेलनों में से एक है, जिसमें लाखों लोग भाग लेते हैं।


महाकुम्भ की समृद्ध परंपरा को देखते हुए, यह हिंदू धर्म की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत का एक जीवंत उदाहरण है।


सारांश


कुंभ की उत्पत्ति बहुत पुरानी है और उस काल के समय की है जब समुद्र मंथन के दौरान अमरता को प्रदान वाला कलस निकला था। इस कलस के लिए राक्षसों और देवताओं के बीच भयंकर युद्ध हुआ था। अमृत कलस को असुरों से बचाने के लिए जो देवताओं से अधिक शक्तिशाली थे उन देवताओं की सुरक्षा बृहस्पति, सूर्य, चंद्र और शनि को सौपीं गई थी। चार देवता असुरों से अमृत कलस को बचाकर भागे और इसी दौरान असुरों ने देवताओं का पीछा 12 दिन और रातों तक किया। पीछा करने के दौरान देवताओं ने कलस को हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में रखा। इस पवित्र समारोह की स्मृति में ही हर 12 साल में इन 4 जगहों पर कुंभमनाया जाता है।


मूल शब्द: कुंभ, देवता, धार्मिक, भारत इत्यादि।


प्रस्तावना


धार्मिक ग्रंथों के अनुसार माना जाता है कि पहले कुंभ का आयोजन राजा हर्षवर्धन के राज्यकाल (664 ईसा पूर्व) में आरंभ हुआ था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपनी भारत यात्रा का उल्लेख करते हुए कुंभ मेले के आयोजन का उल्लेख किया है। साथ ही साथ उसने राजा हर्षवर्द्धन की दानवीरता का भी जिक्र किया है। ह्वेनसांग ने कहा है कि राजा हर्षवर्द्धन हर पांच साल में नदियों के संगम पर एक बड़ा आयोजन करते थे, जिसमें वह अपना पूरा कोष गरीबों और धार्मिक लोगों में दान दे देते थे। ग्रंथों के अनुसार इन संयोग में कुंभ का आयोजन होता है। बृहस्पति के कुंभ राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर हरिद्वार में गंगा के किनारे पर कुंभ का आयोजन होता है। दूसरा जब बृहस्पति के मेष राशि में प्रविष्ट होने तथा सूर्य और चंद्र के मकर राशि में होने पर अमावस्या के दिन प्रयागराज में त्रिवेणी संगम तट पर कुंभ का आयोजन होता है। तीसरा कुंभ बृहस्पति एवं सूर्य के सिंह राशि में आने पर नासिक में गोदावरी के किनारे पर कुंभ का आयोजन होता है और बृहस्पति के सिंह राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर उज्जैन में शिप्रा तट पर कुंभ का आयोजन होता है।


धार्मिक महत्व

यह त्योहार हिंदुओं के लिए धार्मिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण है। हर कुंभ अवसर पर, लाखों हिंदुओं ने समारोह में भाग लिया है। हरिद्वार में 2003 में कुंभ के दौरान 10 लाख से अधिक भक्त इकट्ठे हुए थे। भारत के सभी कोनों से संन्यासी, पुजारी और योगी कुंभ में भाग लेने के लिए एकत्र हुए। हरिद्वार को बहुत ही पवित्र माना जाता है, इस तथ्य के कारण कि गंगा यहां से पहाड़ों से मैदानों में प्रवेश करती है। इस त्योहार पर पूरे भारत के सभी आश्चर्यजनक संतों द्वारा दौरा किया जाता है। नागा साधु एक ऐसे हैं, जो कभी भी कोई कपड़ा नहीं पहनते है और राख में लिप्त रहते हैं। इन लंबे बाल वाले नागाओं पर भीषण सर्दी और गर्मी को कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। उर्द्धवावाहुर्रस वो लोग हैं जो शरीर को तप से निकालने में विश्वास करते हैं। पारिवाजक वो लोग हैं जो चुप्पी साधे रहते हैं और लोगों को अपने रास्तों से बाहर निकालने के लिए घंटियों का प्रयोग करते हैं। सिरसासिन वो लोग हैं जो 24 घंटे सर के बल खड़े होकर तप करते हैं। कल्प वासी वे लोग हैं जो दिन में तीन बार स्नान करते हैं और पुरे कुंभ के दौरान गंगा के किनारों पर समय बिताते हैं। यह माना जाता है कि कुंभ के दौरान स्नान करना सभी पापों और बुराइयों का इलाज करता है और बाघ, मोक्ष प्रदान करता है। यह भी माना जाता है कि कुंभ योग के समय गंगा का पानी सकारात्मक ऊर्जा से भरा होता है और कुंभ के समय जल सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति की सकारात्मक विद्युत चुम्बकीय विकिरणों से भरा होता है।


कुंभ का इतिहास और उसकी महत्ता


वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि राम अपने वनवास काल में जब ऋषि भारद्वज से मिलने गए तो वार्तालाप में ऋषिवर ने कहा कि हे राम, गंगा-यमुना के संगम का जो स्थान है वह बहुत ही पवित्र है आप वहां भी रह सकते हैं-


श्रीरामचरितमानस में प्रयागराज के महत्व का वर्णन बहुत रोचक तरीके से और विस्तारपूर्वक किया गया है-


माघ मकरगत रवि जब होई। तीरर्थ पतिहिं आव सब कोई ।।

देव दनुज किन्त्र नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिवेणी।। 

पूजहिं माधव पद जल जाता। परसि अछैवट हरषहिं गाता।। भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिवर मन भावन।।

तहां होड़ मुनि रिसय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथ राजा ।।


वाल्मीकि रामायण के अनुसार माघ के महीने में त्रिवेणी संगम स्नान का यह रोचक प्रसंग कुंभके समय साकार होता है। साधु-संत प्रातः काल संगम पर स्नान करके कथा कहते हुए ईश्वर के विभिन्न स्वरूपों और तत्वों की विस्तार से चर्चा करते हैं। कुंभ भारतीय संस्कृति का महापर्व है और इस पर्व पर स्नान, दान, ज्ञान मंथन के साथ ही अमृत प्राप्ति की बात भी कही गई है। कुंभ का बौद्धिक पौराणिक ज्योतिषी के साथ-साथ वैज्ञानिक आधार भी है। इसका वर्णन भारतीय संस्कृति के आदि ग्रंथ वेदों में भी मिलता है। प्रयागराज की महत्ता वेदों और पुराणों में विस्तार से बताई गई है। एक बार शेषनाग से ऋषिवर ने भी यही प्रश्न किया था कि प्रयागराज को तीर्थराज क्यों कहा जाता है? इस पर शेषनाग ने उत्तर दिया कि एक ऐसा अवसर आया, जब सभी तीर्थों की श्रेष्ठता की तुलना की जाने लगी, उस समय भारत में समस्त तीर्थों को तुला के एक पलड़े पर रखा गया और प्रयागराज को दूसरे पलड़े पर, फिर भी प्रयागराज का पलड़ा भारी पड़ गया। दूसरी बार सप्तपुरियों को एक पलड़े में रखा गया और प्रयागराज को दूसरे पलड़े पर, वहां भी प्रयागराज वाला पलड़ा भारी रहा। इस प्रकार प्रयागराज की प्रधानता होने से इसे तीर्थों का राजा कहा जाने लगा। इस पावन क्षेत्र में दान, पुण्य, कर्म, यज्ञ आदि के साथ-साथ त्रिवेणी संगम का अति महत्व है।


रामायण के अनुसार यह संपूर्ण विश्व का एकमात्र स्थान है जहां पर तीन-तीन नदियां गंगा, यमुना, सरस्वती मिलती हैं, यहीं से अन्य नदियों का अस्तित्व समाप्त होकर आगे एकमात्र नदी गंगा का महत्व शेष रह जाता है। इस भूमि पर स्वयं ब्रह्माजी ने यज्ञ आदि कार्य संपन्न कर ऋषि और देवताओं ने त्रिवेणी संगम में स्नान कर अपने आपको धन्य माना। मत्स्य पुराण के अनुसार धर्मराज युधिष्ठिर ने एक बार मार्केडय जी से पूछा, ऋषिवर यह बताएं कि प्रयागराज क्यों जाना चाहिए और वहां संगम स्नान का क्या फल है? इस पर मार्केडय जी ने उन्हें बताया कि प्रयागराज के प्रतिष्ठानपुर से लेकर वासुकी के हृदयोपरिपर्यत कंबल और अश्वतर दो भाग हैं और बहुमूलक नाग है। यही प्रजापति का क्षेत्र है जो तीनों लोकों में विख्यात है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यहां पर स्नान करने वाले विभिन्न दिव्यलोक को प्राप्त करते हैं और उनका पुनर्जन्म नहीं होता है। पद्म पुराण कहता है कि यह यज्ञ भूमि है, देवताओं द्वारा सम्मानित इस भूमि में यदि थोड़ा भी दान किया जाता है तो उसका अनंत फल प्राप्त होता है। प्रयागराज की श्रेष्ठता के संबंध में यह भी कहा गया है कि जिस प्रकार ग्रहों में सूर्य और नक्षत्रों में चंद्रमा शेष होता है उसी तरह तीर्थों में प्रयागराज सर्वोत्तम तीर्थ है।


मध्यकाल इतिहास में अकबर के दरबारी अबुल फजल ने आइने अकबरी में लिखा है कि हिन्दू लोग प्रयाग को तीर्थराज कहते हैं, यहीं पर गंगा, यमुना और सरस्वती तीनों का संगम है। कुंभ का महत्व न केवल भारत में वरना विश्व के अनेक देशों में है। इस प्रकार कुंभ को वैश्विक संस्कृति का महापर्व कहा जाए तो गलत नहीं होगा, क्योंकि इस दौरान दुनिया के अनेक देशों से लोग आते हैं और हमारी संस्कृति में रचने-बसने की कोशिश करते हैं, इसलिए कुंभ का महत्व और बढ़ जाता है। कुंभ पर्व प्रत्येक 12 वर्ष पर आता है, प्रत्येक 12 वर्ष पर आने वाले कुंभ पर्व को अब शासन स्तर से महाकुंभ और इसके बीच छह वर्ष पर आने वाले पर्व को कुंभकी संज्ञा दी जा रही है।


पुराणों में कुंभ की अनेक कथाएं मिलती हैं, भारतीय जनमानस में तीन कथाओं का विशेष महत्व कुंभ पर्व के संदर्भ में पुराणों में तीन अलग-अलग कथाएं मिलती हैं। प्रथम कथा के अनुसार कश्यप ऋषि का विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्री दिति और अदिति के साथ हुआ था। अदिति से देवों की उत्पत्ति हुई तथा दिति से दैत्य पैदा हुए। एक ही पिता की संतान होने के कारण दोनों ने एक बार संकल्प लिया कि वे समुद्र में छिपी हुई बहुत सी विभूतियों एवं संपत्तियों को प्राप्त कर उसका उपयोग करें।


इस प्रकार समुद्र मंथन एकमात्र उपाय था। समुद्र मंथन उपरांत 14 रत्न प्राप्त हुए, जिनमें से एक अमृत कलश भी था, इस अमृत कलश को प्राप्त करने के लिए देवताओं और दैत्यों के बीच युद्ध छिड़ गया, क्योंकि उसे पीकर दोनों अमृत की प्राप्ति करना चाह रहे थे। स्थिति बिगड़ते देख देवराज इंद्र ने अपने पुत्र जयंत को संकेत किया और जयंत अमृत कलश लेकर भाग चला। इस पर देवों ने उसका पीछा किया, पीछा करने पर देवताओं और दैत्यों के बीच 12 दिनों तक भयंकर संघर्ष के दौरान अमृत कुंभ को सुरक्षित रखने में बृहस्पति सूर्य और चंद्रमा ने बड़ी सहायता की और उनके हाथों में जाने से कुंभ को बचाया।


सूर्य भगवान ने कुंभ की फूटने से रक्षा की और चंद्रमा ने अमृत छलकने नहीं दिया, फिर भी संग्राम के दौरान मची उथल-पुथल से अमृत कुंभ से चार बूंदें छलक की गईं, यह अलग-अलग चार स्थानों पर गिरी, इनमें से एक गंगा तट हरिद्वार में, दूसरी त्रिवेणी संगम प्रयागराज में,


तीसरी क्षिप्रा तट उज्जैन में और चौथी गोदावरी तट नासिक में। इस प्रकार इन चारों स्थानों पर अमृत प्राप्ति की कामना से कुंभ पर्व मनाया जाने लगा। कुंभ की कथाओं के अनुसार देवता और व्यक्तियों में 12 दिनों तक जो संघर्ष चला था उस दौरान अमृत कुंभ से अमृत की बूंदै जिन स्थानों पर गिरी थीं, वहां-वहां कुंभ मेला लगता है, क्योंकि देवों के इन 12 दिनों को 12 मानवी वर्षों के बराबर माना गया है। इसलिए कुंभ पर्व का आयोजन 12 वर्षों पर होता है। जिस दिन अमृत कुंभ गिरने वाली राशि पर सूर्य चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग हो, उस समय पृथ्वी पर कुंभ होता है। राशि विशेष में सूर्य और चंद्रमा के स्थित होने पर उक्त चारों स्थानों पर शुभप्रभाव के रूप में अमृत वर्षा होती है और यही वर्षा श्रद्धालुओं के लिए पुण्यदायी मानी गई है। इस प्रकार से वृष के गुरु में प्रयागराज, कुंभ के गुरु में हरिद्वार, तुला के गुरु में उज्जैन और कर्क के गुरु में नासिक का कुंभ होता है।


उपसंहार


सूर्य की स्थिति के अनुसार कुंभ पर्व की तिथियां निश्चित होती हैं। मगर शुरू में प्रयागराज, मेष के सूर्य में हरिद्वार, तुला के सूर्य में उज्जैन और कर्क के सूर्य में नासिक का कुंभ पर्व पड़ता है। अथर्व वेद के अनुसार मनुष्य को सर्व सुख देने वाला कौन पर्व है कुंभ। कुंभ में स्नान पर्व का भी अपना महत्व होता है। संक्रांति के पूर्व और बाद की 16 घड़ियों में पुण्यकाल माना गया है। मुहूर्त तिथि आधी रात से पहले हो तो पहले दिन तीसरे पहर में पुण्यकाल बताया गया है और यदि मुहूर्त तिथि आधी रात के बाद हो तो पुण्यकाल प्रातःकाल माना जाता है। इसके अलावा मकर संक्रांति का पुण्यकाल 40 घड़ी, कर्क संक्रांति का पुण्यकाल 30 घड़ी और तुला एवं मेष का संक्रांति का पुण्यकाल 20-20 घड़ी पहले और बाद में बताया गया है। प्रयाग में माघ के महीने में विशेष रूप से कुंभ के अवसर पर गंगा, यमुना एवं अदृश्य सरस्वती के संगम में स्नान का बहुत ही महत्व बताया गया है। अनेक पुराणों में इसके प्रमाण भी मिलते हैं। प्रयागराज में प्रमुख धार्मिक मंदिर है, जिसमें शंकर विमान मंडपम, बड़े हनुमान बंधवा रामानंदाचार्य मठ, सिद्धेश्वर महादेव मंदिर, जगदंबा मठ, नाग वासुकी शक्तिपीठ, एलोप शंकरी मां, ललिता देवी मंदिर, कल्याणी मंदिर, भारद्वाज आश्रम मंदिर, शिव कोटि कोटि तीर्थ मंदिर, श्री हनुमान निकेतन मनकामेश्वर मंदिर, पातालपुरी मंदिर प्रमुख हैं। प्रयागराज में कुल छह कुंभ स्नान पर्व होते हैं। मकर संक्रांति, पौष पूर्णिमा, मौनी अमावस्या, माघी पूर्णिमा, बसंत पंचमी, महाशिवरात्रि प्रयागराज कुंभ का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व है।


सन्दर्भ ग्रन्थ सूची :


1. काणे पी.वी. धर्मशास्त्र का इतिहास प्रथम से चर्तुथ भाग उत्तर प्रदेश हिन्दी ग्रथ स्थान, लखनऊ |


2. गोयल एस. आर. अ रिलीजियस हिस्ट्री ऑफ एश्यिट इंडिया, मेरठ 1984 |


3. दुवे सत्यनारायण भारतीय सभ्यता और संस्कृति, इन्दौर 1984 |


4. ईश्वरी एवं शैलन्द्र शर्माः प्राचीन भारतीय संस्कृति कला, राजनीति धर्म दर्शन, इलाहाबाद 1960 |


5. पालकर सत्यकेतू प्राचीन भारत का धार्मिक सामाजिक और आर्थिक जीवन नई

6. मत्स्य पुराण: अनुवादक राम प्रताप त्रिपाठी शास्त्री आनंद श्रम प्रेस पूना।


7. माकण्डेय पुराण: कलकत्ता 1879 |


8. मनु स्मृत्ति: चौखंभा संस्करण वाराणसी ।


9. ऋग्वेद : एफ मैक्समूलन वि.स. लंदन 1892 |


10. कामा मैक्लिनः तीर्थ यात्रा और शक्ति इलाहाबाद में कुंभ मेला 1756 से 1954 तक |


11. मिश्रा जे.एसःः महाकूभ पृथ्वी पर सबसे बडा शो ।


12. रामानंदःः कुभ मेला (मिथक एव यथार्थ), पि लरिम्स प्रकाशन बाराणसी ।

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