इसलिए पिता महान है : अपने बच्चों की लाइलाज बीमारी से जान बचाने के लिए पिता ने की 20 साल रिसर्च
1996 की है। अमेरिका में जॉन क्रॉली को पता चला कि उनके 15 महीने के बच्चे को पोम्पे नामक एक दुर्लभ बीमारी है। यही रोग उनकी सात साल की बेटी को भी था। डॉक्टर्स का कहना था कि दोनों बच्चों का जीवन लंबा नहीं होगा। लेकिन पिता ने हार नहीं मानी और पोम्पे रोग के अनुसंधान •के लिए धन जुटाने के लिए संगठनों के साथ काम करना शुरू किया। उन्होंने वैज्ञानिक मित्र की मदद से एक बायोटेक कंपनी शुरू की और अनुसंधान शुरू किया। जबकि वे इस विज्ञान के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे। वे इस काम में लगे रहे। 20 साल की रिसर्च के दौरान वे पोम्पे की दवा खोजने में सफल रहे और अपने बच्चों को बचाने में भी।
1. सम्मान का संकल्प
बात उन दिनों की है, जब मुझे आठवीं के रिजल्ट के बाद भविष्य के लिए नौवीं कक्षा में किस सब्जेक्ट को चुनना है, यह तय करना था। लापरवाही के चलते मैं यह डिसाइड नहीं कर सका कि कौन-सी ब्रांच में एडमिशन लेना है। इसी बीच एडमिशन की डेट निकल जाने का पता चला तो मैं दौड़ा-दौड़ा स्कूल गया। अध्यापक से बात की तो उन्होंने कहा, तारीख निकल चुकी है। अब तुम्हारा एडमिशन नहीं हो सकता। मैंने स्कूल के प्रिंसिपल से अनुरोध किया तो वो भी बोले, तुम लेट हो गए। मैंने कहा, ठीक है। पर मैं पिताजी को क्या जवाब दूंगा? मेरी तो हिम्मत भी नहीं होगी। मैं उन्हें भेजता हूं। आप ही उन्हें बता देना। यह सुनते ही प्रिंसिपल बोले, 'अरे, उन्हें मत भेजना।' मैं मायूस होकर घर पहुंचा तो पिताजी मेरा इंतजार ही कर रहे थे। उन्होंने पूछा एडमिशन हुआ क्या? मैंने कहा, प्रिंसिपल साहब से आप ही पूछ लीजिए। इस पर पिताजी मेरा हाथ पकड़कर स्कूल की तरफ चल दिए। वहां मैंने देखा कि प्रिंसिपल साहब ने बड़े सम्मान के साथ पिताजी का स्वागत किया और मेरी तरफ शिकायत भरी दृष्टि से कहा, 'तुझे कहा था ना ! अपने पिताजी को मत भेजना।' फिर सब एक साथ हंस दिए। मैं मन ही मन खुश था कि पिताजी के कारण ही मेरी लेटलतीफी भरी गलती सस्ते में निपट गई और मैं अपने मनपसंद के सब्जेक्ट साइंस की क्लास में जा बैठा। मैंने मन ही मन संकल्प लिया कि भले ही जिंदगी में कुछ कमाऊं या ना कमाऊं, पिताजी की तरह इज्जत व सम्मान जरूर कमाऊंगा।
2. 'सुपरहीरो' पापा
बात तब की है, जब मैं अक्सर टीवी पर सुपर हीरो वाले कॉमिक शो देखता तो यही सोचता कि इस हीरो के पास इतनी शक्तियां आती कहां से हैं, जो पलक झपकते ही सारा काम कर लेता है। बाल बुद्धि थी। उस वक्त समझ इतनी विकसित नहीं थी। समय बीतते गया और मैं थोड़ा होशियार हो गया। घर की स्थिति सामान्य थी और घर खर्च के लिए खींचतान हर महीने की स्थायी समस्या थी। जीवन के इस दौर में घने बादलों की तरह यह लगता था कि कैसे हम आगे बढ़ पाएंगे। कई बार मन किया कि पिताजी से बोलूं, लेकिन कभी हिम्मत नहीं हुई। लेकिन मैं तब हैरान हो जाता था, जब उनसे बात किए बिना ही हमारी इच्छाएं पूरी हो जाती थीं। घर का किराया, स्कूल की फीस, परचून की सामग्री, पापा की मोपेड की किस्त और हाथ उधार का चुकारा, इन सबके बाद बच्चों की हर वो जरूरत जो मध्यमवर्गीय परिवार में पूरी करनी बहुत कठिन थी, कैसे पूरी हो जाती थी? हमें नहीं पता कि संघर्षों के इस तूफानी दौर में पिताजी इतने अडिग और संवेदनशील कैसे बने रहे। आज जब मैं खुद नौकरी कर रहा हूं और बच्चों और पत्नी की डिमांड सामने आती है तो अब समझ में आता है कि असली सुपर हीरो तो एक पिता ही होता है। अक्सर सोचता हूं कि एक पिता ने किसी उच्च संस्थान से एमबीए नहीं किया होता है, फिर भी उसमें गृहस्थी, अनुशासन, आर्थिक, पारिवारिक और सामाजिक मैनेजमेंट कहां से आ जाता है।
3. भूत की खांसी
मैं चौथी कक्षा में था। पिताजी शिक्षक थे। दूरस्थ गांव में पोस्टिंग थी। हम एक पुराने कोठीनुमा बड़े भवन के आगे वाले कक्ष में किराए पर रहते थे। आयताकार बने पूरे भवन में हमारे अलावा कोई नहीं रहता था। पुराने तरीके से बने उस बड़े भवन में कई कमरे थे और वह ऊपर से बिल्कुल पैक था। एक रात मेरी नींद अचानक खुली और मैंने सुना कि कमरे के बाहर कोई जोर- जोर से अट्टहासपूर्वक हंस रहा है और उसकी यह हंसी पूरे मकान में गूंज रही थी। डर के मारे पूरी रात उस हंसी की आवाज से मैं सो नहीं पाया। अगले दिन जब पिताजी उठे तब मैंने उन्हें वाकया सुनाया। उन्होंने कहा जरूर तेरा वहम होगा। अगर फिर कभी ऐसी आवाज्ज आए तो मुझे रात को ही उठा देना। अगली रात फिर वैसा ही हुआ। मैंने डरते हुए पिताजी को उठाया। मैं डर के मारे कांप रहा था, लेकिन पिताजी ने कमरे का दरवाजा खोला और मेरा हाथ पकड़ कर बाहर ले आए। आवाज लोहे की जालियों से छन कर, यानी छत से आ रही थी। पिताजी ने सीढ़ियों का दरवाजा खोला और मुझे छत पर ले गए। हमने देखा कि हमारी ठीक पास वाली छत पर सोए बुजुर्ग को निरंतर खांसी चल रही है। वही खांसी की आवाज हमारी छत पर लगी लोहे की जाली में से होकर मकान के नीचे वाले हिस्से में पहुंच रही थी। पिताजी ने समझाया कि ध्वनि परावर्तन से सामान्य खांसी की आवाज भी जाली से गुजरने के बाद नीचे बंद हिस्से में आकर गूंजती हुई हंसी का रूप लग रही है। यह सब देख मेरी सांस में सांस आई। यदि पिताजी ने मुझे आधी रात में ही छत पर ले जाकर बाबा की खांसी ना दिखाई होती तो मैं जीवन भर यही सोचता रहता कि उस घर में कोई भूत है।
4. पिता की वो तरकीब
माँता-पिता और बच्चों के बीच पसंद-पढ़ाई की बात को लेकर मा खाता और बा है। ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। लेकिन पिता की तरकीब मुझे जीवन की सच्ची समझ दे गई। मैं 9वीं पास करने के साथ ही फिल्ममेकिंग में कॅरियर बनाना चाहता था। मुझे इस क्षेत्र की सच्चाई-संघर्ष का कोई आभास नहीं था। मैंने पिता से यह बात कही तो वे सहजता से मेरी बात सुनते रहे। वे मुझे भावनगर में मेरे पसंदीदा स्नैक स्पॉट पर ले गए। पसंद का नाश्ता करते हुए मुझे तसल्ली से सुना। 'पक्का, तुम फिल्म डॉयरेक्टर बनना चाहते हो ? ठीक है। क्या ऐसा कर सकते हो कि पहले डॉक्टर बनने के लिए पढ़ाई कर लो, फिर फिल्म डॉयरेक्टर बनने का सपना पूरा ? इस पर विचार करके देखो। वैसे जो भी निर्णय होगा, वह मुझे मुझे मंजूर म होगा।' 9वीं पास बच्चे को यूं ससम्मान सुनकर पिता ने मुझे पहले पढ़ाई के लिए प्रेरित किया। मुझे गुजरात के सबसे सम्मानित बीजे मेडिकल कॉलेज-अहमदाबाद में एमबीबीएस में प्रवेश मिला। फिर एमडी करने के बाद अब मैं एम्स-राजकोट में सेवारत हूं। मेरे अति उत्साह-अपरिपक्व विचार-सपनों को समानुभूति के साथ संभालने की पिता की तरकीब को मैं आजीवन नहीं भूल सकता।
5. अनुशासन का सबक
यह घटना तब की है, जब मैं 8वीं कक्षा में था। मैं और मेरे पिता हम दोनों तहसील के गांव अकोला गए थे। अगले दिन क्लास टीचर ने मुझे और पिछले दिन अनुपस्थित सभी छात्रों को क्लास में खड़ा कर दिया और हमें स्कूल प्रिंसिपल के पास भेज दिया। एक-एक करके सभी लोग प्रिंसिपल के कैबिन में गए। उनमें से कुछ रोते हुए तो कुछ हाथ सहलाते हुए बाहर आ रहे थे। आखिरकार मैं कैबिन के अंदर गया। मेरे दोनों हाथों पर भी चार बार छड़ी मारी गई। पूरे दिन मेरी आंखें आंसुओं से भरी रहीं। उसके बाद मैंने एक हफ्ते तक प्रिंसिपल से कोई बात नहीं की। अब आप कहेंगे, उनसे बात करने की जरूरत भी क्या थी? मुझे सज्जा देने वाले प्रिंसिपल कोई और नहीं, मेरे पिता ही थे। मैं पिछले दिन उनके साथ ही गांव गया था। मुझे लगा था कि जब स्कूल के प्रिंसिपल मेरे साथ हैं तो मुझे क्लास टीचर से पूछने की क्या जरूरत है? उनसे मैंने तब अनुशासन का सबक सीखा था।
6. पिता और टीन शेड
करीबन 30 साल पुरानी बात है। नई-नई नौकरी लगी थी। नोट की और जवानी का जोश पैर घर पर टिकने नहीं देते थे। काम के बाद रोज घूमने अथवा शॉपिंग के लिए निकल जाता। यह देख पिताजी ने आड़े वक़्त के लिए पैसे बचाने, बाहर का नहीं खाने और देर तक घूमने को लेकर टोकना शुरू कर दिया। तो मैंने भी पिताजी से अलग स्वतंत्र रहने का मन बना लिया और इसके लिए घर भी देखना शुरू कर दिया। पिताजी की अनुभवी आंखों ने यह सब ताड़ लिया। एक शाम काम से लौटते वक्त तेज बारिश आ गई। बारिश ने भीषण रूप ले लिया। जैसे-तैसे भीगते हुए घर पहुंचा और बाइक खड़ी कर बाहर लगे शेड के नीचे दौड़कर और वहां पहुंचकर राहत की सांस ले पाता, तभी वहां पहले से खड़े पिताजी बोले- 'सोचता हूं, यह शेड निकलवा दूं, बहुत आवाज करता है।' उनकी आंखों में देखते ही पल भर में पूरा माजरा समझ में आ गया। एकदम से ध्यान में आया कि पिता भी टीन के एक शेड की ही तरह होते हैं, जो हमें गर्मी रूपी मुसीबतों एवं बारिश रूपी समस्याओं से निजात तो दिलाते हैं, मगर टोकाटाकी एवं मार्गदर्शन रूपी आवाज भी बहुत करते हैं। मैं एकदम से झुककर पिताजी के पैरों में गिरते हुए बोला, 'यह शेड कभी नही निकलेगा।' आज जबकि हम घर का कई बार रेनोवेशन करवा चुके हैं, मगर वह टीन का शेड आज भी जस का तस लगा हुआ है।
7. पिता के लेखन संस्कार
साहित्यिक और सांगीतिक रुचि वाले पिताश्री से जब मैंने सा तुलसी जयंती पर भाषण लिखने का अनुरोध किया तो उन्होंने इससे साफ 'इनकार' कर दिया। मैंने उनसे दो-तीन बार कहा तो व्यस्तता का बहाना बनाने लगे। मैं सोचने लगा कि क्या एक पिता अपने बच्चे के लिए इतना भी नहीं कर सकता ! चूंकि उस समय जमाना ऐसा था कि पिता से ज्यादा कुछ बोल तो सकते नहीं थे, मगर भीतर गुस्सा भी बहुत आ रहा था। इसलिए मन ही मन पिताजी को एक तरह से 'चुनौती' देते हुए मन में ही कहा कि अगर आप नहीं लिख सकते तो कोई बात नहीं। मैं खुद लिख लूंगा। और फिर मैंने अपनी हिंदी की किताब और कुछ अन्य साहित्यिक सामग्री की मदद से भाषण लिख लिया। जब लिख लिया तो पिताजी खुद मेरे पास आए और बोले- दिखा, कैसे लिखा। पिताजी ने देखा और पीठ ठोंकते हुए कहा- अरे वाह, कमाल कर दिया। उसमें उन्होंने कुछ जरूरी संशोधन * भी किए। फिर धीरे से बोले- 'बेटा, भाषण तो मैं भी लिखकर दे देता, लेकिन अगर ऐसा ही करते रहता तो तुम फिर लिखना कब सीखते ?' उनके यह शब्द आज भी याद आ जाते हैं, जब मैं अपने लेखन संस्कार व साहित्यिक कृतियों पर दृष्टिपात करता हूं।
8. फेल और मिठाई
ऐसे अक्सर बंसी धुन थे या तबले की थाप कहो, लेकिन गुस्से में होते थे एक एटम बम पापाजी... पिता यूं डरावने नहीं थे, लेकिन ग़लतियों पर पूरे हिटलर। इम्तिहानों से पहले डपट देते, 'साल भर नहीं कहा कि पढ़ो, अब देखूंगा तुम्हारे नंबर ।' जब बारहवीं का रिजल्ट आया तो रोल नंबर मिला द्वितीय और तृतीय श्रेणी के बीच। पिता का चेहरा ही बार-बार ख़यालों में आ रहा था। एक डर था अपनी शामत का लेकिन बड़ा सदमा था कि सिर ऊंचा करने के पिता के अरमान पर मैंने पानी फेर दिया था। तरह-तरह के कशमकश से जूझता क़रीब दो घंटे रोता, चीखता सुनसान सड़कों पर भटकता रहा मैं। घर किस मुंह से जाऊं ! आगे कुछ बेहतर कर दिखाने की तसल्ली बांधी, मन को तैयार किया कि बेटा मरम्मत तो होगी। रुआंसी शक्ल लिए घर पहुंचा तो चिंतित पिता ने चुप्पी साध ली। फिर गले लगाकर बोले, 'कोई बात नहीं, अभी तो पूरी जिंदगी बाकी है। चल आ, मिठाई खाकर आते हैं।'
9. कर्त्तव्य का पाठ
बात उन दिनों की है जब मैं 19 वर्ष का था। मुझे ठीक से मोटर साइकल चलानी नहीं आती थी। स्कूल से छुट्टी के बाद मुझे लेने ट्रैक्टर का ड्राइवर आता था। उसी से सीखना शुरू किया था। घर में राजदूत गाड़ी थी। ट्रैक्टर ड्राइवर बिना बताए दो दिन से काम पर नहीं आया था। बाबूजी ने मुझे साइकल से उसके गांव जाकर नहीं आने का कारण पता लगाने को कहा। मुझे साइकल से जाना ठीक नहीं लगा। गाड़ी चलाने की ललक थी। तो मैं राजदूत स्टार्ट कर उसके गांव पहुंचा। पता चला कि कुछ जरूरी काम से वो नहीं आ पाया। लौटते हुए बमुश्किल आधा किमी ही आ पाया था कि गाड़ी बंद हो गई। गाड़ी खींचते पैदल आना मजबूरी थी। शरीर पसीने से लथपथ, चेहरा देखने लायक। अब चिंता हुई, बाबूजी पूछेंगे तो क्या बताऊंगा? रात में बाबूजी ने पूछ ही लिया 'क्या हुआ? गया था न?' मैंने झेंपते, रोते रोते बात बताई। बाबूजी ने डांटने के बजाय हंसते हुए कहा, चलो अच्छा हुआ। जीवन में अनुभव भी तो जरूरी है। पर एक बात याद रखना- बड़ों की बात की अवहेलना नहीं करनी चाहिए, आज्ञा का पालन जरूरी है।
10. सृजन की प्रेरणा
बाबा (पिता) का मेरे जीवन पर अमिट प्रभाव रहा है। बाबा के प्रोत्साहन के बिना शायद मैं आज यहां नहीं होती। बचपन से ही मुझे लिखने का शौक था, परंतु मेरे लेखन को दिशा देने वाला कोई नहीं था। एक दिन बाबा ने मेरी सभी रचनाएं पढ़ने के लिए मांगीं। कुछ दिनों बाद बाबा ने मुझे मेरी कविताओं के संग्रह का 'सुरम्या' शीर्षक दिया। इससे मैं बेहद उत्साहित हुई और छोटी-छोटी रचनाएं लिखना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे मेरी कई रचनाएं प्रकाशित हुईं। मैं तात्कालिक कविताएं लिखने में माहिर हो गई। खास बात यह रही कि बतौर लेखक मैं अपने स्वजनों और मित्रगणों में प्रिय हो गई। बाबा के स्नेह और प्रोत्साहन ने मुझे लेखक के रूप में स्थापित किया। अंग्रेजी की व्याख्याता होते हुए भी हिंदी में मेरे लेखन का श्रेय केवल बाबा को जाता है। उनके बिना यह संभव नहीं था।
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